गुलाम सरवर/रब्बानी के पुत्र ज़ुल्करनैन, जिन्हें प्यार से ‘ज़ुलु’ कहा जाता है, ने महज़ 4 साल की उम्र में अपना पहला रोज़ा रखा। इतनी कम उम्र में यह महान इबादत करने का उनका निश्चय पूरे समाज के लिए एक प्रेरणा का स्रोत है।
इस घटना से यह संदेश मिलता है कि रोज़ा रखने का जज़्बा उम्र या शारीरिक क्षमता से परे है। ज़ुल्करनैन ने यह साबित कर दिया कि यदि इंसान में सच्ची लगन और नीयत हो, तो वह किसी भी काम को पूरा कर सकता है। उनका यह कदम न केवल उनके परिवार के लिए बल्कि उन लोगों के लिए भी एक बड़ा सबक है जो रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़ा रखने से हिचकिचाते हैं।
रमज़ान का महीना, जो कि आत्म-नियंत्रण, इबादत और आत्म-अनुशासन का प्रतीक है, में रोज़ा रखना एक महत्वपूर्ण फर्ज़ माना जाता है। ज़ुल्करनैन का यह कदम समाज में विश्वास और धैर्य का संदेश फैलाता है। उनके इस प्रयास से यह सिखने को मिलता है कि रोज़ा रखने में कोई उम्र की सीमा नहीं होती और यह हर उम्र के लोगों के लिए एक प्रेरणा बन सकता है।
समाज में इस तरह के प्रेरणादायक कदम अक्सर लोगों को अपनी इबादत और आस्था में वृद्धि करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। ज़ुल्कारनैन का यह उदाहरण यह दर्शाता है कि यदि किसी में पक्का इरादा और नीयत हो, तो वह किसी भी धार्मिक फर्ज़ को सरलता से निभा सकता है। यह खबर उन सभी के लिए एक यादगार उदाहरण है जो रोज़ा रखने में संकोच करते हैं।
रमज़ान में बच्चों के रोज़ा रखने के बारे में जानकारी
रमज़ान इस्लाम का पवित्र महीना है, जिसमें मुसलमान अल्लाह की इबादत करते हैं, रोज़ा रखते हैं और अपनी आत्मा को शुद्ध करने का प्रयास करते हैं। रोज़ा रखना इस्लाम के पाँच स्तंभों में से एक है, जो बालिग (व्यस्क) मुसलमानों के लिए अनिवार्य (फर्ज़) है। हालांकि, बच्चे भी इस पवित्र महीने में रोज़ा रखने की इच्छा रखते हैं और माता-पिता उन्हें इस्लामी शिक्षा के तहत धीरे-धीरे इस आदत के लिए प्रेरित करते हैं।
बच्चों के रोज़ा रखने की इस्लामिक मान्यताएँ
इस्लाम में रोज़ा केवल उन मुसलमानों पर फर्ज़ है जो बालिग (यानी उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच चुके हैं जहां इस्लाम के अनुसार उन्हें धार्मिक जिम्मेदारियाँ निभानी होती हैं)। बालिग़ होने की उम्र आमतौर पर लड़कियों के लिए 9-12 साल और लड़कों के लिए 12-15 साल मानी जाती है। छोटे बच्चों के लिए रोज़ा अनिवार्य नहीं होता, लेकिन उन्हें धीरे-धीरे इसकी आदत डालने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
बच्चों को रोज़े की आदत कैसे डालें?
- छोटे समय के लिए रोज़ा – छोटे बच्चों के लिए पूरे दिन का रोज़ा कठिन हो सकता है, इसलिए शुरुआत में उन्हें आधा दिन (ज़ुहर तक) या कुछ घंटों के लिए रोज़ा रखने के लिए प्रेरित करें।
- खेल-खेल में इस्लामिक शिक्षा देना – बच्चों को रमज़ान की अहमियत समझाने के लिए कहानियाँ सुनाएँ और उन्हें इस्लामिक शिक्षा से जोड़ें।
- इनाम और प्रोत्साहन – यदि बच्चा रोज़ा रखने की कोशिश करता है, तो उसकी हौसला-अफज़ाई करें और उसे कोई छोटा-सा इनाम दें।
- धीरे-धीरे रोज़े की आदत डालना – जब बच्चा थोड़ा बड़ा हो जाए, तो उससे एक-दो रोज़े रखने को कहें और फिर धीरे-धीरे उसे पूरे महीने की तैयारी के लिए प्रेरित करें।
- सहज और खुशहाल माहौल बनाना – सहरी और इफ़्तार को बच्चों के लिए विशेष बनाएँ ताकि वे रमज़ान का आनंद महसूस करें और इसका हिस्सा बनने के लिए उत्साहित हों।
बच्चों के रोज़ा रखने के फायदे
- धार्मिक समझ विकसित होती है – रोज़ा रखने से बच्चों में इस्लामी शिक्षाओं के प्रति रुचि बढ़ती है।
- संयम और आत्म-नियंत्रण सिखाता है – इससे बच्चों को भूख-प्यास सहने और धैर्य बनाए रखने की आदत होती है।
- सामाजिकता और एकता की भावना आती है – परिवार और समुदाय के साथ रोज़ा रखने से बच्चे इस्लामी भाईचारे को समझते हैं।
- स्वास्थ्य और अनुशासन की आदतें विकसित होती हैं – सही समय पर खाने और हेल्दी फूड का सेवन करने की आदत बनती है।
बच्चों के रोज़ा रखने में सावधानियाँ
- कमज़ोरी या थकावट महसूस हो तो रोज़ा न रखें।
- अगर बच्चा बीमार है तो रोज़ा रखने के लिए ज़ोर न दें।
- बच्चे के खान-पान का पूरा ध्यान रखें ताकि उसके शरीर को आवश्यक पोषण मिलता रहे।
रमज़ान में बच्चों के रोज़ा रखने की परंपरा उन्हें इस्लामी शिक्षा और अनुशासन से जोड़ने का एक अच्छा तरीका है। हालांकि, यह अनिवार्य नहीं है, लेकिन बच्चों को धीरे-धीरे इसकी आदत डलवाना एक सकारात्मक पहल हो सकती है। सही मार्गदर्शन और देखभाल के साथ, बच्चे इस पवित्र महीने की अहमियत समझ सकते हैं और बड़े होने पर सही तरीके से रोज़ा रख सकते हैं।