भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना के चाचा जस्टिस एएस खन्ना भी एक समय भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने की कतार में थे, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें इस पद तक पहुंचने नहीं दिया। इस घटना के पीछे का कारण न्यायिक स्वतंत्रता और सरकार के साथ उनके कुछ मतभेदों से जुड़ा हुआ है, जो आज भी भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
क्या था मामला?
1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट की ऐतिहासिक सुनवाई हुई थी। इस मामले में संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा को स्थापित किया गया था। यह फैसला भारतीय संविधान के इतिहास में बेहद अहम माना जाता है, क्योंकि इसमें संविधान के कुछ मूल सिद्धांतों को अडिग रखने की बात कही गई थी। जस्टिस एएस खन्ना ने इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और उन्होंने सरकार के दबाव के बावजूद संविधान के मूल ढांचे की रक्षा करने के लिए स्वतंत्र राय रखी थी।
इंदिरा गांधी का निर्णय
इस फैसले के बाद इंदिरा गांधी की सरकार न्यायपालिका पर अपना प्रभाव बढ़ाना चाहती थी। सरकार ने जस्टिस खन्ना के स्थान पर अपने समर्थक जजों को तरजीह देने का फैसला किया और इस तरह से जस्टिस एएस खन्ना को मुख्य न्यायाधीश बनने से रोक दिया गया। इस निर्णय ने भारत की न्यायिक स्वतंत्रता और सरकार के हस्तक्षेप के मुद्दे को उजागर कर दिया था।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रभाव
जस्टिस एएस खन्ना के साथ हुए इस घटनाक्रम के बाद भारतीय न्यायपालिका में कई बहसें छिड़ गईं और न्यायिक स्वतंत्रता की मांग तेज हो गई। जस्टिस खन्ना के इस मामले ने यह सवाल खड़ा किया कि क्या न्यायाधीश सरकार के प्रभाव से स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकते हैं या नहीं।
संजीव खन्ना बने CJI
अब संजीव खन्ना, जो जस्टिस एएस खन्ना के भतीजे हैं, भारत के मुख्य न्यायाधीश बने हैं। यह घटना भारतीय न्यायपालिका के लिए एक प्रतीकात्मक और ऐतिहासिक क्षण है, क्योंकि उनके चाचा को मुख्य न्यायाधीश बनने से रोका गया था। संजीव खन्ना का CJI बनना यह दर्शाता है कि न्यायिक स्वतंत्रता की भावना अब भी भारतीय न्यायपालिका में जिंदा है।
इस मामले ने भारतीय न्यायिक व्यवस्था और सरकार के रिश्ते में एक गहरी छाप छोड़ी है और इसने न्यायपालिका की स्वतंत्रता की महत्ता को भी रेखांकित किया है।